मैंने अक्सर देखा है लोगो को किसी मुद्दे पर अपनी बात रखते हुए, उसके बारे में लिखते हुए पर उसके लिए जीते हुए बहुत ही काम लोगो को देखा है। क्या दो लफ्ज़ लिख लेने से या कह देने से मुद्दे हल हो जाते हैं ? अरसा लग जाता है एक सोच बनाने में,उससे कहीं ज्यादा हिम्मत की जरुरत पड़ती है अपनी बात को रखने में पर एक तपस्वी बनना पड़ता है उसे पाने के लिए। मुझे आज भी याद है वो दिन जब कछा 9 में मैंने एक निबंध लिखा था महिला सशक्तिकरण (women empowerment)पर। आजकल तो हर एग्जाम का यह पसंदीदा विषय है। खैर !लिखा तो मैंने भी बहुत कुछ था,मुझे लगता था की अगर महिलायें कमाने लगे तो वे सशक्त हो जाएँगी। मगर ,आज मैं जब खुद के अंदर झाँक के देखती हूँ तो एक कमी सी महसूस होती है। कहने को तो मैं इंडिपेंडेंट हूँ ,एक जिम्मेदार पद पर नौकरी कर रही हूँ पर अंदर से मुझे लगता है मैं आज भी सशक्त नहीं हूँ। समाज में मैं अपने को उस इंसान के रूप में देखती हूँ जिसके अंदर आज भी झिझक है ,एक अनजाना सा डर है। मुझे मालूम है की लोग मेरे काम के आधार पर मेरा आंकलन करेंगे ,मुझे मेरे काम से जानेंगे। मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की दुनिया मुझे कैसे देखेगी पर इस बात से फर्क पड़ता है की मेरी पहचान का रुख क्या होगा। जिस दिन मैं बेफिक्र और निडर हो कर अपनी जिंदगी के फैसले लेने लगूंगी ,उस दिन से मैं सशक्त हूँ।यह मेरा संघर्ष है ..... अपने आप से सशक्त होने के लिए। गाँधी जी ने एक बात कही है "आप खुद वो बदलाव बनिए जो आप दुनिया में देखना चाहते हैं (be the change you want to see in the world).मैं चाहती हूँ की हर लड़की सशक्त बने पर सिर्फ दुनिया की नज़रो में नहीं बल्कि अपनी नज़रो में भी।
खुद से नज़रे चुराया न करो
दिखावे का ये मुखौटा लगाया न करो
नक़ाबों के अंदर भी खूबसूरत चेहरे हैं
उन्हें ऐसे छुपाया न करो
आस्था जायसवाल (पुलिस उपाधीक्षक )