जब लग जाते है पंख तब कहाँ पाँव
जमीन पर नज़र आता है।
ये नशा ही है कुछ अजीब सा है आज़ादी का ,
लोग फिसल जाते हैं पर कहाँ गिरना
कोई महसूस कर पाता है।
जब टूट जाती है बन्दिशों की दीवार ,
तब शायद ही चकाचौंध से कोई
खुद को रोक पता है।
ऊँचाइयों की बात ही कुछ और है यारो ,
दुसरो को नीचे गिरा कर अब
उसे पाया जाता है।
जरुरी नहीं हर कामयाबी ख़ुशी ही दे ,
कभी - कभी मज़बूरियों का भी
मज़ा आ जाता है।
आसमां को जितना भी छु लेना मगर ,
जमीन पर गड़ा पाँव ही ऊँचाइयों
का एहसास दिलाता है।
वो बंधन लाख अच्छे है उस आज़ादी से,
जिसंमे इंसान आज भी इंसान
बना रह जाता है।
सबको खुला आसमां कहाँ रास आता है.……
आस्था जायसवाल